मंगलवार, 30 नवंबर 2010

मै बनारस हूँ ! कभी काशी और वाराणसी भी हूँ !

शिव-गंगा का अभिमान हूँ, बुद्ध का पहला ज्ञान हूँ,

मुक्ति का समाधान हूँ, संतो का निवास_स्थान हूँ,

मै अजय, अमर, अभेद हूँ, मै संस्कृति हूँ, 

मै बनारस हूँ !


सिल्क का व्यापार हूँ, पान का बाज़ार हूँ,

लंगडे की मिठास हूँ, ठंडई की भाँग हूँ,

कचौड़ी की चटकार हूँ, जलेबी का स्वाद हूँ,

मै बनारस हूँ !


मालवीय का विश्वास हूँ, प्रेमचंद का उपन्यास हूँ,

शास्त्री की आस हूँ, बिरजू महाराज की झंकार हूँ,

तुलसी_कबीर के दोहे हूँ, बिस्मिल्लाह की शेहनाई हूँ, 

मै बनारस हूँ ! 


चार विद्यापीठों से शोभाएमान हूँ,

सारनाथ का स्तम्भ हूँ, विंध्याचल का पहाड़ हूँ,

सहस्त्र मंदिरों की ज्योति हूँ, दरगाह, गिरिजा सा पाक हूँ,

मै बनारस हूँ ! 

लेकिन...

नेताओं की भीख से, गुंडों की रीत से.

हिन्दू-मुस्लिम में खींच से, प्रदूषण और पीक से,

मै परेशान हूँ ....... मै बनारस हूँ !


A tribute to my home town... I wish someone somewhere responsible authority read the last lines and give Banaras "mukti" from traffic chaos, extortion & pollution...
Vins

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

जब हम बच्चे अच्छे थे...

जब माँ से हर रोज़ कुछ नया खिलाने को कहते थे...

जब पापा देर से घर आ हमसे स्कूल की बातें पूछा करते थे...

जब पतंग उड़ाने में उँगलियाँ काट, बा-काटे कहते थे...

जब बिजली गुल, तब पंखा छोड़, लुक्का-छिप्पी खेला करते थे...

जब राजा-रानी-चोर-सिपाही कितने सचे और पैसे, झूट लगा करते थे...

जब पकड़म-पकड़ाई और चेन-चेन में दोस्तों को कस के थामा करते थे...

जब रविवार की रंगोली को पूरे हफ्ते गाया करते थे...

जब रामलीला के राम को हम सच का राम समझते थे...

जब हम बच्चे अच्छे थे...

आज खेलने को खेल भी हैं और मन बहलाने के साजो-सामान...

पर छूट गए उन गलियों में कुछ लम्हे और मेरे दोस्त तमाम...

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

तेरा दीदार!!!

इन सडकों से कोई अभी गुजरा है... यहाँ  का मौसम कुछ बदला सा है...

इन पत्तो में हरियाली भी कुछ ज्यादा सी है... क्या तुमने इन्हें छुआ है...?

इन झोकों में एक भीनी सी खुसबू है... हवाओं को भी तेरा सहारा है...

लोग भी कुछ बेगाने-दीवाने से लग रहें है... ज़रूर इन्हें तेरा दीदार हुआ है...

वक़्त-ऐ-फुरक़त की सिर्फ हमें क्यों सजा है... दीदार-ऐ-यार को सिर्फ हम ही तरसते रह गए...

सोमवार, 15 नवंबर 2010

मुफलिसी का दौर छाया है...!

आज कल मुफलिसी का दौर छाया है.
की ख्वाब भी आने की कीमत मांगते हैं...

खर्चने को अब ना कुछ बाकि रहा है,
की रिश्ते भी किश्तों में जीए जा रहें हैं...

रुपये पैसे से ही जीवन का अब मोल है,
की जज़्बात जैसे मुफ्त में बट रहें हैं...

काश हम लौट चलें उस दौर में...
जहाँ अपनों का अपनापन हमारी दौलत थी...

रविवार, 7 नवंबर 2010

अपना दिल थाम लेना...


इस कविता के कुछ शब्द उधार पे लेकर हमारे द्वारा सजाये गए हैं. आशा करते है आप सबको पसंद आयेगी. आपसे निवेदन है की 'किसी' शब्द पे विशेष गौर फ़रमाइये.


जब कभी 'किसी' को मिलना चाहो... अपना दिल थाम लेना.

हम तो हमेशा खयालो में रहेते हैं 
और जब तुम्हे 'किसी' का ख़याल आये तो...अपना दिल थाम लेना.


यह सच है हम जिसे चाहते है भुला नहीं सकते,
पर जब तुम 'किसी' को भुलाना चाहो... अपना दिल थाम लेना.


लोग कहेते है जब कोई 'किसी' को याद करता है तो पलकें नम हो जाती है,
पर जब तुम 'किसी' को याद करना तो... अपना दिल थाम लेना.


इंतज़ार करना तो इंसा की कमज़ोरी है,
पर जब तुम 'किसी' को कमज़ोर पाओ तो... अपना दिल थाम लेना.


'एक' चेहरा पढना अच्छी बात है,
पर जब तुम चेहरा 'किसी' का ना पढ़ पाओ तो... अपना दिल थाम लेना.


सिर्फ यादों के सहारे जीवन जीना आँसा नहीं,
पर जब तुम 'किसी' को सहारा दो तो... अपना दिल थाम लेना.


कभी... जब_भी... मेरे जीवन की शाम हो... तुम ज़रूर आओगे,
जब सब रो रहे हो तुम 'किसी' का दिल थाम लेना...

Vins :)

सोमवार, 1 नवंबर 2010

कभी जिंदगी बीता दी - कभी एक नज़र काफी थी...

कभी जिंदगी बीता दी और कभी एक नज़र काफी थी...
तुम हो तो हर सुबह कुछ नयी सी है...
वरना कोन सी हसरते बाकी थी...


जाने अनजाने में यूहीं, ठेस पहुंचाई होगी,
वर्ना तुमको भी खफा करने की कहाँ मजाल बाकी थी...


ऐ खुदा अब ना लेना, तू मेरे गुनाहों का हिसाब,
रोज़ अदालत में खड़े होते हैं, अब क्या तेरी सज़ा भी बाकी थी...


दोस्त तेरे साथ का... इस जिंदगी का... "शुक्रिया"...!
"शुक्रिया" उस हर पल का जिसकी आरज़ू ही काफी थी...


Vins :)

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

एक तुम बस ऐसी सी...

भोर की किरणों सी...
सुबह की अँगड़ाई सी...
चंदा की चांदनी सी...
पायल की झंकार सी...
नन्हों की हंसी सी...
एक तुम (२) बस ऐसी सी... 


फूलों में गुलाब सी...
धुप में छाव सी...
मौझो में रवानी सी...
मस्ती में शराब सी...
काम में योवन सी...
एक तुम (२) बस ऐसी सी... 

रंगों में सतरंगी सी...
मंदिर में पूजाओं सी...
दरगाह में दुआओं सी...
गीतों में संगीत सी...
कविता में कल्पना सी...
एक तुम (२) बस ऐसी सी... 

Vins :)

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

आज फिर दिल सतरह का होना चाहे!

स्याही से दिल बना, चिठियों में हाले-ऐ-ज़िगर बयाँ करना चाहे...
तेरी नशेमन आँखों में खो, जुल्फों में उलझना चाहे...

आज फिर दिल सतरह का होना चाहे!

एक गुलाब किताब में रख उसे हर वक़्त पड़ना चाहे...
तेरी मेहँदी देख, उसमे अपना अक्स ढूँढना चाहे...

आज फिर दिल सतरह का होना चाहे!

सबसे छुपा तेरा नाम अपने हाथों पे लिखना चाहे...
और कभी देर तलक तेरी तस्वीर निहारना चाहे...

आज फिर दिल सतरह का होना चाहे!

दोस्तों में तेरी बातें सुन, खुद पे इतराना चाहे...
और कभी महफ़िल में तेरी याद छुजाये, तो अपने को अकेला पाये...

आज फिर दिल सतरह......................

Vins :)

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

तेरे सिवा....

तेरे सिवा....


रात काली श्याही सी है...
और दिन में कुछ दिखता नहीं...तेरे सिवा...!


सपने कुछ धूमिल से है...
और खुली पलकें कुछ नम सी हैं... तेरे सिवा...!


हकीकत कुछ नाराज़ सी है...
और अरमानों को कुछ सूजता नहीं... तेरे सिवा...!


दिल में दर्द कम नहीं है...
और इसकी कोई दवा नहीं है... तेरे सिवा...!


तू मेरी हो न सकी है...
और मै किसीका 'ना' होना चाहूँ ... तेरे सिवा...!

Vins :)

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

सुबह सवेरे

आज सुबह तकिये में कुछ नमी सी थी,
शायद कल रात इन आँखों में कुछ बेचैनी सी थी...

थोडा महसूस किया, तो दिल में एक खालीपन सा लगा,
शायद कुछ था जो कही छुट गया था...

बिस्तर से कदम कुछ लडखडाये खडे हुए,
शायद तेरी यादों से मिल कर लौटे थे...

चादर में सिलवटें भी कुछ ज्यादा सी थी,
शायद कल रात वो भी मुझसे कुछ नाराज़ सी थी...

सपने भी कोई याद नहीं मुझको,
शायद वो भी खफा हो तेरे पहलु में बैठें हो...!

Vins :)