ढलती हुई शाम को सहारे चाहिये...
कुछ गुजरते हुए तूफानों को भी किनारे चाहिये...
सुकूँ से सोये हुए जमाने गुजर गये...
पास आओ जरा कंधे फिर तुम्हारे चाहिये...
ख्वाबों की ताबीर हो, ये तमन्ना किसे नहीं...
तुम दिख जाओ कहीं, भला अब और क्या चाहिये...
यूं तो सई-ए-मुसलसल से कट रही हैं उम्र अपनी...
'मेहर' थाम लेती हाथ जो....
..... जाने दो ये फिजूल के अरमां नहीं चाहिये...
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