कुछ कहे - कुछ अनकहे, हालात से जूझते ये अरमान...
कभी पलकों में सिमटे, मुस्कानों में लिपटे, हर वक़्त कुछ टूटते ये अरमान...
दरीचों में, बगीचों में, शाम-ओ-सुबह में, एक परछाई को दुढ़ते ये अरमान...
मदमस्त हवाओं के इन झोको में, कुछ उलझी जुल्फों को सुलझाने के अरमान...
तमन्नाओं का जाल... कमबख्त ये अरमान...!!!
उफ़ ये अरमान!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंवाह...बेजोड़ रचना...बधाई स्वीकारें
जवाब देंहटाएंनीरज
दरीचों में, बगीचों में, शाम-ओ-सुबह में, एक परछाई को दुढ़ते ये अरमान...Kitne sachchy hain yah armaan...
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